पीड़ा का विषय यह ज़रूर है कि आज़ाद भारत में आरक्षण के बावजूद अनुसूचित और पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित पद भरने के लिए योग्य अभ्यर्थी नहीं मिल पाते हैं और स्थान खाली रह जाते हैं। यह कठिनाई शहरों की अपेक्षा गाँव में कहीं अधिक होती है।
आज़ाद भारत के प्रारंभिक वर्षों में प्राथमिक शिक्षा के साधन बहुत कम थे। मुझे खुद कक्षा 1, 2, 3 की पढ़ाई के लिए जंगल के रास्ते से लगभग 2 किलोमीटर पैदल जाना होता था, और कक्षा 4 और 5 की पढ़ाई के लिए 4 किलोमीटर। उसके बाद कक्षा 6, 7, 8, जिसे सीनियर प्राइमरी या जूनियर हाई स्कूल कहते हैं, उसके लिए मुझे 12 किलोमीटर जाना और वापस आना होता था। उन्हीं दिनों से मेरी धुन थी कि मेरे गाँव में विद्यालय क्यों नहीं है। सौभाग्य से, हायर सेकेंडरी की पढ़ाई संघर्षों के साथ पूरी करके विश्वविद्यालय और कनाडा से शोध कार्य करने में सफल हुआ। कनाडा का आराम का जीवन छोड़कर जब वापस आया तो पत्नी निर्मला मिश्रा के साथ गाँव में स्कूल खोला। लेकिन वहां लड़कियों को बुलाने और उनकी शिक्षा के लिए निर्मला मिश्रा को बहुत अधिक परिश्रम करना पड़ा। जब वह गाँव की महिलाओं से कहती थीं कि अपनी बेटी को हमारे स्कूल में क्यों नहीं भेजती हो, तो उनका उत्तर होता था—लड़की जात है, चिट्ठी-पत्री लिखना आ गया है, अब और ज़्यादा पढ़कर क्या करेगी। जब वह और आग्रह करतीं, तो महिलाएं कहतीं—लड़की जात है, उसकी सुरक्षा का भी सवाल है। तब निर्मला मिश्रा कहतीं—उसकी ज़िम्मेदारी मैं लेती हूं। और इस प्रकार हमारे विद्यालय में लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक हो गई, और आज भी है।
आज के समय में गाँव-गाँव में प्राइमरी स्कूल खुले हैं और हर पंचायत में एक सीनियर प्राइमरी यानी कक्षा 6, 7, 8 के लिए विद्यालय मौजूद है। पहले की अपेक्षा अच्छे भवन हैं, अधिक संख्या में अध्यापक, कुर्सी, मेज, ब्लैकबोर्ड सब कुछ है। लेकिन फिर भी शिक्षा का स्तर दयनीय है। छात्रों से कोई फीस नहीं ली जाती, यूनिफॉर्म, वज़ीफ़ा और दोपहर का भोजन मुफ्त में दिया जाता है, फिर भी कक्षा 5 पास करने के बाद बच्चे हिंदी का साधारण इमला नहीं लिख पाते। विद्यालयों का निरीक्षण पहले की अपेक्षा बहुत कमजोर है। परिणाम यह हुआ है कि अध्यापक आने, जाने और पढ़ाने में मनमानी करते हैं, उनमें कर्तव्य-बोध नहीं है।
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